Tuesday, March 31, 2015

નક્ષત્ર અને વૃક્ષો


કેલ્શિયમ ની કમી માટે આયુર્વેદ

कैल्शियम की कमी ? - एक बेहद असरदार प्रयोग - हड्डियाँ बन जाएँगी फौलाद :
आज के समय में अधिकतर लोग शरीर में कैल्शियम की कमी से जूझ रहे है .कैल्शियम की कमी के कारण शरीर में दर्द लगातार बना रहता है .. महिलाओं में यह समस्या ज्यादा पायी जाती है ..तरह तरह की कैल्शियम की टेबलेट्स खाकर भी समस्या का समाधान नहीं होता ..इन्ही समस्याओं के निवारण के लिए एक बेहद असरदार प्रयोग पर आज चर्चा की जाएगी.
सामग्री--- (1) हल्दीगाँठ 1 किलोग्राम (2) बिनाबुझा चूना 2 किलो
विधि – सबसे पहले किसी मिट्टी के बर्तन में चूना डाल दें .अब इसमें इतना पानी डाले की चूना पूरा डूब जाये ..पानी डालते ही इस चूने में उबाल सी उठेगी ..जब चूना कुछ शांत हो जाए तो इसमें हल्दी डाल दें और किसी लकड़ी की सहायता से ठीक से मिक्स कर दे ..
इस हल्दी को लगभग दो माह तक इसी चूने में पड़ी रहने दे .. जब पानी सूखने लगे तो इतना पानी अवश्य मिला दिया करे की यह सूखने न पाए ....
दो माह बाद हल्दी को निकाल कर ठीक से धो लें और सुखाकर पीस ले और किसी कांच के बर्तन में रख लें .
सेवन विधि--- (1) वयस्क 3 ग्राम मात्रा गुनगुने दूध में मिलाकर दिन में दो बार
(2) बच्चे – 1 से 2 ग्राम मात्रा गुनगुने दूध में मिलाकर दिन में दो बार
लाभ -- कुपोषण, बीमारी या खानपान की अनियमितता के कारण शरीर में आई कैल्शियम की कमी बहुत जल्दी दूर हो जाती है और शरीर में बना रहने वाला दर्द ठीक हो जाता है .
ये दवा बढ़ते बच्चों के लिए एक अच्छा bone टॉनिक का कामकरती है और लम्बाई बढ़ाने में बहुत लाभदायक है टूटी हड्डी न जुड़ रही हो या घुटनों और कमर में दर्द तो अन्य दवाओं के साथ इस हल्दी का भी प्रयोग बहुत अच्छे परिणाम देगा
सावधानी --- ..जिन्हें पथरी की समस्या है वो न लें 

Wednesday, February 18, 2015


स्वाइन फ्लू एक बार फिर देश में पांव पसार रहा है। फ्लू से डरने के बजाय जरूरत इसके लक्षणों के बारे में जानने और सावधानी बरतने की है। आइए जानें स्वाइन फ्लू से सेफ्टी के तमाम पहलुओं के बारे में
क्या है स्वाइन फ्लू
स्वाइन फ्लू श्वसन तंत्र से जुड़ी बीमारी है, जो ए टाइप के इनफ्लुएंजा वायरस से होती है। यह वायरस एच1 एन1 के नाम से जाना जाता है और मौसमी फ्लू में भी यह वायरस सक्रिय होता है। 2009 में जो स्वाइन फ्लू हुआ था, उसके मुकाबले इस बार का स्वाइन फ्लू कम पावरफुल है, हालांकि उसके वायरस ने इस बार स्ट्रेन बदल लिया है यानी पिछली बार के वायरस से इस बार का वायरस अलग है।



कैसे फैलता है
जब आप खांसते या छींकते हैं तो हवा में या जमीन पर या जिस भी सतह पर थूक या मुंह और नाक से निकले द्रव कण गिरते हैं, वह वायरस की चपेट में आ जाता है। यह कण हवा के द्वारा या किसी के छूने से दूसरे व्यक्ति के शरीर में मुंह या नाक के जरिए प्रवेश कर जाते हैं। मसलन, दरवाजे, फोन, कीबोर्ड या रिमोट कंट्रोल के जरिए भी यह वायरस फैल सकते हैं, अगर इन चीजों का इस्तेमाल किसी संक्रमित व्यक्ति ने किया हो।

शुरुआती लक्षण
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नाक का लगातार बहना, छींक आना, नाक जाम होना।
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मांसपेशियां में दर्द या अकड़न महसूस करना।
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सिर में भयानक दर्द।
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कफ और कोल्ड, लगातार खांसी आना।
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उनींदे रहना, बहुत ज्यादा थकान महसूस होना।
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बुखार होना, दवा खाने के बाद भी बुखार का लगातार बढ़ना।
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गले में खराश होना और इसका लगातार बढ़ते जाना।

नॉर्मल फ्लू से कैसे अलग
सामान्य फ्लू और स्वाइन फ्लू के वायरस में एक फर्क होता है। स्वाइन फ्लू के वायरस में चिड़ियों, सूअरों और इंसानों में पाया जाने वाला जेनेटिक मटीरियल भी होता है। सामान्य फ्लू और स्वाइन फ्लू के लक्षण एक जैसे ही होते हैं, लेकिन स्वाइन फ्लू में यह देखा जाता है कि जुकाम बहुत तेज होता है। नाक ज्यादा बहती है। पीसीआर टेस्ट के माध्यम से ही यह पता चलता है कि किसी को स्वाइन फ्लू है। स्वाइन फ्लू होने के पहले 48 घंटों के भीतर इलाज शुरू हो जाना चाहिए। पांच दिन का इलाज होता है, जिसमें मरीज को टेमीफ्लू दी जाती है।

कब तक रहता है वायरस
एच1एन1 वायरस स्टील, प्लास्टिक में 24 से 48 घंटे, कपड़े और पेपर में 8 से 12 घंटे, टिश्यू पेपर में 15 मिनट और हाथों में 30 मिनट तक एक्टिव रहते हैं। इन्हें खत्म करने के लिए डिटर्जेंट, एल्कॉहॉल, ब्लीच या साबुन का इस्तेमाल कर सकते हैं। किसी भी मरीज में बीमारी के लक्षण इन्फेक्शन के बाद 1 से 7 दिन में डिवेलप हो सकते हैं। लक्षण दिखने के 24 घंटे पहले और 8 दिन बाद तक किसी और में वायरस के ट्रांसमिशन का खतरा रहता है।

चिंता की बात
इस बीमारी से लड़ने के लिए सबसे जरूरी है दिमाग से डर को निकालना। ज्यादातर मामलों में वायरस के लक्षण कमजोर ही दिखते हैं। जिन लोगों को स्वाइन फ्लू हो भी जाता है, वे इलाज के जरिए सात दिन में ठीक हो जाते हैं। कुछ लोगों को तो अस्पताल में एडमिट भी नहीं होना पड़ता और घर पर ही सामान्य बुखार की दवा और आराम से ठीक हो जाते हैं। कई बार तो यह ठीक भी हो जाता है और मरीज को पता भी नहीं चलता कि उसे स्वाइन फ्लू था। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि जिन लोगों का स्वाइन फ्लू टेस्ट पॉजिटिव आता है, उनमें से इलाज के दौरान मरने वालों की संफ्या केवल 0.4 फीसदी ही है। यानी एक हजार लोगों में चार लोग। इनमें भी ज्यादातर केस ऐसे होते हैं, जिनमें पेशंट पहले से ही हार्ट या किसी दूसरी बीमारी की गिरफ्त में होते हैं या फिर उन्हें बहुत देर से इलाज के लिए लाया गया होता है।

यह रहें सावधान
5
साल से कम उम्र के बच्चे, 65 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्ग और गर्भवती महिलाएं। जिन लोगों को निम्न में से कोई बीमारी है, उन्हें अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए :
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फेफड़ों, किडनी या दिल की बीमारी
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मस्तिष्क संबंधी (न्यूरोलॉजिकल) बीमारी मसलन, पर्किंसन
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कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोग
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डायबीटीजं
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ऐसे लोग जिन्हें पिछले 3 साल में कभी भी अस्थमा की शिकायत रही हो या अभी भी हो। ऐसे लोगों को फ्लू के शुरुआती लक्षण दिखते ही डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।
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गर्भवती महिलाओं का प्रतिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) शरीर में होने वाले हॉरमोन संबंधी बदलावों के कारण कमजोर होता है। खासतौर पर गर्भावस्था के तीसरे चरण यानी 27वें से 40वें सप्ताह के बीच उन्हें ज्यादा ध्यान रखने की जरूरत है।

अकसर पूछे जाने वाले सवाल
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अगर किसी को स्वाइन फ्लू है और मैं उसके संपर्क में आया हूं, तो क्या करूं?
सामान्य जिंदगी जीते रहें, जब तक फ्लू के लक्षण नजर नहीं आने लगते। अगर मरीज के संपर्क में आने के 7 दिनों के अंदर आपमें लक्षण दिखते हैं, तो डॉक्टर से सलाह करें।
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अगर साथ में रहने वाले किसी शफ्स को स्वाइन फ्लू है, तो क्या मुझे ऑफिस जाना चाहिए?
हां, आप ऑफिस जा सकते हैं, मगर आपमें फ्लू का कोई लक्षण दिखता है, तो फौरन डॉक्टर को दिखाएं और मास्क का इस्तेमाल करें।
-
स्वाइन फ्लू होने के कितने दिनों बाद मैं ऑफिस या स्कूल जा सकता हूं?
अस्पताल वयस्कों को स्वाइन फ्लू के शुरुआती लक्षण दिखने पर सामान्यत: 5 दिनों तक ऑब्जर्वेशन में रखते हैं। बच्चों के मामले में 7 से 10 दिनों तक इंतजार करने को कहा जाता है। सामान्य परिस्थितियों में व्यक्ति को 7 से 10 दिन तक रेस्ट करना चाहिए, ताकि ठीक से रिकवरी हो सके। जब तक फ्लू के सारे लक्षण खत्म न हो जाएं, वर्कप्लेस से दूर रहना ही बेहतर है।
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क्या किसी को दो बार स्वाइन फ्लू हो सकता है?
जब भी शरीर में किसी वायरस की वजह से कोई बीमारी होती है, शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र उस वायरस के खिलाफ एक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेता है। जब तक स्वाइन फ्लू के वायरस में कोई ऐसा बदलाव नहीं आता, जो अभी तक नहीं देखा गया, किसी को दो बार स्वाइन फ्लू होने की आशंका नहीं रहती। लेकिन इस वक्त फैले वायरस का स्ट्रेन बदला हुआ है, जिसे हो सकता है शरीर का प्रतिरोधक तंत्र इसे न पहचानें। ऐसे में दोबारा बीमारी होने की आशंका हो सकती है।

स्वाइन फ्लू से बचाव और इसका इलाज
स्वाइन फ्लू न हो, इसके लिए क्या करें?
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साफ-सफाई का ध्यान रखा जाए और फ्लू के शुरुआती लक्षण दिखते ही सावधानी बरती जाए, तो इस बीमारी के फैलने के चांस न के बराबर हो जाते हैं।
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जब भी खांसी या छींक आए रूमाल या टिश्यू पेपर यूज करें।
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इस्तेमाल किए मास्क या टिश्यू पेपर को ढक्कन वाले डस्टबिन में फेंकें।
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थोड़ी-थोड़ी देर में हाथ को साबुन और पानी से धोते रहें।
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लोगों से मिलने पर हाथ मिलाने, गले लगने या चूमने से बचें।
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फ्लू के शुरुआती लक्षण दिखते ही अपने डॉक्टर से संपर्क करें।
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अगर फ्लू के लक्षण नजर आते हैं तो दूसरों से 1 मीटर की दूरी पर रहें।
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फ्लू के लक्षण दिखने पर घर पर रहें। ऑफिस, बाजार, स्कूल न जाएं।
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बिना धुले हाथों से आंख, नाक या मुंह छूने से परहेज करें।

आयुर्वेद
ऐसे करें बचाव
इनमें से एक समय में एक ही उपाय आजमाएं।
- 4-5
तुलसी के पत्ते, 5 ग्राम अदरक, चुटकी भर काली मिर्च पाउडर और इतनी ही हल्दी को एक कप पानी या चाय में उबालकर दिन में दो-तीन बार पिएं।
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गिलोय (अमृता) बेल की डंडी को पानी में उबाल या छानकर पिएं।
-
गिलोय सत्व दो रत्ती यानी चौथाई ग्राम पौना गिलास पानी के साथ लें।
- 5-6
पत्ते तुलसी और काली मिर्च के 2-3 दाने पीसकर चाय में डालकर दिन में दो-तीन बार पिएं।
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आधा चम्मच हल्दी पौना गिलास दूध में उबालकर पिएं। आधा चम्मच हल्दी गरम पानी या शहद में मिलाकर भी लिया जा सकता है।
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आधा चम्मच आंवला पाउडर को आधा कप पानी में मिलाकर दिन में दो बार पिएं। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

स्वाइन फ्लू होने पर क्या करें
यदि स्वाइन फ्लू हो ही जाए तो वैद्य की राय से इनमें से कोई एक उपाय करें:
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त्रिभुवन कीर्ति रस या गोदंती रस या संजीवनी वटी या भूमि आंवला लें। यह सभी एंटी-वायरल हैं।
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साधारण बुखार होने पर अग्निकुमार रस की दो गोली दिन में तीन बार खाने के बाद लें।
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बिल्वादि टैब्लेट दो गोली दिन में तीन बार खाने के बाद लें।

होम्योपैथी
कैसे करें बचाव
फ्लू के शुरुआती लक्षण दिखने पर इन्फ्लुएंजाइनम-200 की चार-पांच बूंदें, आधी कटोरी पानी में डालकर सुबह-शाम पांच दिन तक लें। इस दवा को बच्चों समेत सभी लोग ले सकते हैं। मगर डॉक्टरों का कहना है कि फ्लू ज्यादा बढ़ने पर यह दवा पर्याप्त कारगर नहीं रहती, इसलिए डॉक्टरों से सलाह कर लें। जिन लोगों को आमतौर पर जल्दी-जल्दी जुकाम खांसी ज्यादा होता है, अगर वे स्वाइन फ्लू से बचना चाहते हैं तो सल्फर 200 लें। इससे इम्यूनिटी बढ़ेगी और स्वाइन फ्लू नहीं होगा।

स्वाइन फ्लू होने पर क्या है इलाज
1:
बीमारी के शुरुआती दौर के लिए
जब खांसी-जुकाम व हल्का बुखार महसूस हो रहा हो तब इनमें से कोई एक दवा डॉक्टर की सलाह से ले सकते हैं:
एकोनाइट (Aconite 30), बेलेडोना (Belladona 30), ब्रायोनिया (Bryonia 30), हर्परसल्फर (Hepursuphur 30), रसटॉक्स (Rhus Tox 30), चार-पांच बूंदें, दिन में तीन से चार बार।
2:
अगर फ्लू के मरीज को उलटियां आ रही हों और डायरिया भी हो तो नक्स वोमिका (Nux Vomica 30), पल्सेटिला (Pulsatilla 30), इपिकॉक (Ipecac-30) की चार-पांच बूंदें, दिन में तीन से चार बार ले सकते हैं।
3:
जब मरीज को सांस की तकलीफ ज्यादा हो और फ्लू के दूसरे लक्षण भी बढ़ रहे हों तो इसे फ्लू की एडवांस्ड स्टेज कहते हैं। इसके लिए आर्सेनिक एल्बम (Arsenic Album 30) की चार-पांच बूंदें, दिन में तीन-चार बार लें। यह दवा अस्पताल में भर्ती व ऐलोपैथिक दवा ले रहे मरीज को भी दे सकते हैं।

योग
शरीर के प्रतिरक्षा और श्वसन तंत्र को मजबूत रखने में योग मददगार साबित होता है। अगर यहां बताए गए आसन किए जाएं, तो फ्लू से पहले से ही बचाव करने में मदद मिलती है। स्वाइन फ्लू से बचाव के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले अभ्यास करें:
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कपालभाति, ताड़ासन, महावीरासन, उत्तानपादासन, पवनमुक्तासन, भुजंगासन, मंडूकासन, अनुलोम-विलोम और उज्जायी प्राणायाम तथा धीरे-धीरे भस्त्रिका प्राणायाम या दीर्घ श्वसन और ध्यान।
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व्याघ्रासन, यानासन व सुप्तवज्रासन। यह आसन लीवर को मजबूत करके शरीर में ताकत लाते हैं।

डाइट
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घर का ताजा बना खाना खाएं। पानी ज्यादा पिएं।
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ताजे फल, हरी सब्जियां खाएं।
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मौसमी, संतरा, आलूबुखारा, गोल्डन सेव, तरबूज और अनार अच्छे हैं।
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सभी तरह की दालें खाई जा सकती हैं।
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नींबू-पानी, सोडा व शर्बत, दूध, चाय, सभी फलों के जूस, मट्ठा व लस्सी भी ले सकते हैं।
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बासी खाना और काफी दिनों से फ्रिज में रखी चीजें न खाएं। बाहर के खाने से बचें।

मास्क की बात

न पहने मास्क
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मास्क पहनने की जरूरत सिर्फ उन्हें है, जिनमें फ्लू के लक्षण दिखाई दे रहे हों।
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फ्लू के मरीजों या संदिग्ध मरीजों के संपर्क में आने वाले लोगों को ही मास्क पहनने की सलाह दी जाती है।
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भीड़ भरी जगहों मसलन, सिनेमा हॉल या बाजार जाने से पहले सावधानी के लिए मास्क पहन सकते हैं।
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मरीजों की देखभाल करने वाले डॉक्टर, नर्स और हॉस्पिटल में काम करने वाला दूसरा स्टाफ।
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एयरकंडीशंड ट्रेनों या बसों में सफर करने वाले लोगों को ऐहतियातन मास्क पहन लेना चाहिए।

कितनी देर करता है काम
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स्वाइन फ्लू से बचाव के लिए सामान्य मास्क कारगर नहीं होता, लेकिन थ्री लेयर सर्जिकल मास्क को चार घंटे तक और एन-95 मास्क को आठ घंटे तक लगाकर रख सकते हैं।
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ट्रिपल लेयर सजिर्कल मास्क लगाने से वायरस से 70 से 80 पर्सेंट तक बचाव रहता है और एन-95 से 95 पर्सेंट तक बचाव संभव है।
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वायरस से बचाव में मास्क तभी कारगर होगा जब उसे सही ढंग से पहना जाए। जब भी मास्क पहनें, तब ऐसे बांधें कि मुंह और नाक पूरी तरह से ढक जाएं क्योंकि वायरस साइड से भी अटैक कर सकते हैं।
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एक मास्क चार से छह घंटे से ज्यादा देर तक न इस्तेमाल करें, क्योंकि खुद की सांस से भी मास्क खराब हो जाता है।

कैसा पहनें
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सिर्फ ट्रिपल लेयर और एन 95 मास्क ही वायरस से बचाव में कारगर हैं।
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सिंगल लेयर मास्क की 20 परतें लगाकर भी बचाव नहीं हो सकता।
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मास्क न मिले तो मलमल के साफ कपड़े की चार तहें बनाकर उसे नाक और मुंह पर बांधें। सस्ता व सुलभ साधन है। इसे धोकर दोबारा भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

ध्यान रखें कि
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जब तक आपके आस-पास कोई मरीज या संदिग्ध मरीज नहीं है, तब तक मास्क न लगाएं।
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अगर मास्क को सही तरीके से नष्ट न किया जाए या उसका इस्तेमाल एक से ज्यादा बार किया जाए तो स्वाइन फ्लू फैलने का खतरा और ज्यादा होता है।
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खांसी या जुकाम होने पर मास्क जरूर पहनें।
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मास्क को बहुत ज्यादा टाइट पहनने से यह थूक के कारण गीला हो सकता है।
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अगर यात्रा के दौरान लोग मास्क पहनना चाहें तो यह सुनिश्चित कर लें कि मास्क एकदम सूखा हो। अपने मास्क को बैग में रखें और अधिकतम चार बार यूज करने के बाद इसे बदल दें।

कीमत
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थ्री लेयर सजिर्कल मास्क : 10 से 12 रुपये
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एन-95 : 100 से 150 रुपये 

Tuesday, February 10, 2015

कृपया निम्न तथ्यों को बहुत ही ध्यान से तथा मनन करते हुए पढ़िये:-
1. 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है।
2. 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में ‘विजयी’ देश के रुप में उभरता है।
3. ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता है, बल्कि जापानी सेना को बर्मा से भी निकाल बाहर करता है।
4. इतना ही नहीं, ब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है।
5. जाहिर है, इतना खून-पसीना ब्रिटेन ‘भारत को आजाद करने’ के लिए तो नहीं ही बहा रहा है। अर्थात् उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा है।
6. फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार होता है कि ब्रिटेन हड़बड़ी में भारत छोड़ कर चला जाता है?
हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसके पन्नों में सम्भवतः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते- क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आये हैं- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते।
प्रसंगवश- 1922 में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलती, उसका पूरा श्रेय गाँधीजी को जाता। मगर “चौरी-चौरा” में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया, जबकि उस वक्त अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे! दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखने वाले महापुरूष हैं, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। हालाँकि एक दूसरा रास्ता भी था- कि गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की आजादी’ पर।
यहाँ हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगायेंगे, जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की ईच्छा रखने वाले अँग्रेजों को जल्दीबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा।
प्रसंगवश- जरा अँग्रेजों द्वारा भारत में किये गये ‘निर्माणों’ पर नजर डालें- दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने एवं इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!
***
लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये, उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है।
इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं।
फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ “भारत माँ की आजादी के लिए” लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो “महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए” लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत है; और अगर देश की जनता सही है, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते।
सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।
फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है। कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है।
यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध “राजभक्ति” की नींव को भी हिला कर रख देता है।
जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह “राजभक्ति” ही है!
***
बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी, जब (मार्च’44 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आह्वान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे, देश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित हो जायें और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें।
इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि-
1. सिर्फ तीस-चालीस हजार सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं पहुँचा जा सकता, और
2. जापानी सेना की ‘पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (आसाम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) ‘लीडो रोड’ को नष्ट करना; भारत की आजादी उसकी ‘दूसरी’ मंशा है।
ऐसे में, नेताजी को अगर भरोसा था, तो भारत के अन्दर ‘नागरिकों के आन्दोलन’ एवं ‘सैनिकों की बगावत’ पर। ...मगर दुर्भाग्य, कि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत।
इसके भी कारण हैं।
पहला कारण, सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह प्रचार (प्रोपागण्डा) फैलाया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सो, सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी।
दूसरा कारण, फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं।
तीसरा कारण, भारतीय जवानों का मनोबल बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरु कर दिया था। इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेय' भी 1943 से 46 तक सेना में रहे और वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने सीमा पर पहुँचे थे। (ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।)
चौथा कारण, भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने का हिमायती था, उसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी! ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इन “भारतीय जवानों” की “राजभक्ति” के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।)
पाँचवे कारण के रुप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल वे अपनी पत्रिकाओं में करते थे।
***
खैर, जो आन्दोलन एवं बगावत 1944 में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है।
वर्ना जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा... और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।
लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है। भारत को तीन भौगोलिक तथा दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती है। और भी बहुत-सी शर्तें अँग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं। (ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी अभी कुछ समय पहले तक तक वेतन ले रहा था, जबकि उसका पोता पेन्शन पाता था!) इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक रूप से कमजोर बनाया जाय।
लेडी एडविना माउण्टबेटन के चरित्र को देखते हुए बर्मा के गवर्नर लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम वायसराय बनाने का निर्णय लिया जाता है- लॉर्ड वावेल के स्थान पर। एटली की यह चाल काम कर जाती है। विधुर नेहरूजी को लेडी एडविना अपने प्रेमपाश में बाँधने में सफल रहती हैं और लॉर्ड माउण्टबेटन के लिए उनसे शर्तें मनवाना आसान हो जाता है!
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बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गयी है कि ‘गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से’ हमें आजादी मिली है। इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली- जरा मुश्किल काम है। अतः नीचे खुद अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिन्हें याद रखने पर शायद नयी धारणा को दिमाग में बैठाने में मदद मिले-
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सबसे पहले, माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:
“भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे आजादी का रास्ता प्रशस्त होना था।”
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अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं।
प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो विन्दुओं में आता है कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और
2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।
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यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं:
“... उनसे मेरी उन वास्तविक विन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, “न्यू-न-त-म!” ”
(श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑव बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था।)
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निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि:-
1. अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।
2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।
3. अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान बहुत ही कम रहा।